वैसे बच्चे...
मेरी पहली नियुक्ति नगर निगम के स्कूल, नई दिल्ली में हुई। एक तो 20 साल की उम्र में नौकरी की शुरुआत ,फिर उस वक़्त बहुत जोश भी होता है कुछ नया करने का।
सब कुछ ठीक था पर स्कूल की एक बच्ची ने मेरा ध्यान बहुत आकर्षित किया।
उसकी आंखों में बाकी बच्चों की तरह मासूमियत तो थी पर अपनापन दूसरे बच्चों से ज्यादा था । वो हर कक्षा में जाती और टीचर्स के सामने कॉपी रखकर कहती मुझे पढ़ा दो।
वो तभी 5 मिनट बाद फिर दूसरी कक्षा में जाती और यही कहती।
मैंने एक सीनियर से पूछा- ये ऐसा क्यू करती है ? उन्होंने बोला -अरे ये वो है...
मैंने पूछा- वो कौन?
उन्होंने कहा - अरे ! जो वैसे बच्चे होते हैं, जिनमें दिमाग कम होता है । वो है।
तब तो मुझे कुछ करने का मौका ना मिला।
फिर जब वो पांचवीं कक्षा में हुई, तो संयोग से वो क्लास मुझे मिल गई।
हमने मिलकर बहुत कुछ सीखा, उसने मुझे बहुत कुछ सिखाया।
दुनिया का दोगलापन उसकी वजह से ही देख पाई मै।
उसके बाद वो पांचवीं पास करके हाई स्कूल चली गई, और मुझे दे गई उस दरवाजे की चाबी जिस पर दुनिया के लोगों ने अपने अपने हिसाब से ताले लगाए हुए थे।
अपनी सोच के ताले।
किसी पर लिखा था - पागल । किसी पर "मंदबुद्धि"। किसी पर - "मोटा दिमाग"।
और भी बहुत कुछ जो भी लोग अपनी सोच अनुसार सोच पाए, वो सब शब्द।
मैंने स्पेशल एजुकेशन में डिप्लोमा किया और चल पड़ी उस रास्ते जहां सिर्फ गालियां उलझी हुई मिली। हर मोड़ पर एक दलाल भी मिला जिसने दावा तो किया की हम समाज की सोच बदल रहे हैं। पर सोच को बदल नहीं रहे थे, बस एक सुरंग में ले जा रहे थे जहां एक छोटे से झरोखे से रोशनी दिख रही थी। उस झरोखे के सहारे बस अपनी जेब भर रहे थे। (Private special education clinic)
सरकार ने" इन्क्लूसिव एजुकेशन" की मशाल जलाई।
अब सबको शिक्षा का अधिकार है वो भी एक छत के नीचे चाहे वो "ऐसे बच्चे" हो या "वैसे बच्चे"।
उस मशाल के चलते मैंने एक प्राइवेट स्कूल ज्वाइन किया।
"हाथी के दांत खाने के और,दिखाने के और"
बस ये कहावत ही याद आयी जैसे जैसे गहराई से जाना , मशाल की सच्चाई को।
आज भी सिर्फ दिल्ली नहीं , भारत के कितने शहर हैं जहां सब बच्चे बिना किसी भेदभाव (शारारिक,मानसिक, जन्मजात )के एक ही विद्यालय में पढ़ते हो?
जहां पढ़ते है वहां के अध्यापकों तक को नहीं पता,क्या विशेष शिक्षक ( स्पेशल एजुकेटर) होता है। क्या होते हैं "वैसे बच्चे"?
लोग जिन्हें स्पेशल चिल्ड्रेन कहते हैं मै उन्हें बता दूं वो बच्चे तो आपके बच्चों कि तरह नॉर्मल ही होते है, बस उनकी जरूरतें स्पेशल होती है। इसलिए उन्हें स्पेशल चिल्ड्रेन नहीं कहते; "चिल्ड्रेन विद स्पेशल नीड़ " कहते हैं।
ये ऐसे , वैसे बच्चे नहीं आपके ही बच्चों जैसे बच्चे होते हैं।
इनका जन्म भी मां के गर्भ से ही होता है, इनको पैदा करने वाली मां भी आप सबकी तरह नौ महीने अपनी कोख में इन्हे सींचती है। ना सहन होने वाली प्रसव पीड़ा से गुजर कर , इन्हे जन्म देती है।
जब कुछ भी अंतर नहीं तो क्यों अब भी लोग कहते हैं "वैसे बच्चे"?
मैं अकेले इस तंग सोच के पहाड़ को तोड तो नहीं सकती, पर अपने हिस्से का वार तो कर ही सकती हूं।
आप सब भी शामिल हो जाइए , इसे तोड़ने के लिए।
वो माएँ भी मुस्कुराएंगी और इस समाज में आत्म - सम्मान से जी पाएंगे ,"वो बच्चे"।
👌👌👌
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंVery nice di best of luck
जवाब देंहटाएंNice mam ... I m with u
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएं