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सम्पत्ति का अधिकार कानून संशोधन - कितना सही कितना गलत

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"सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 9 सितंबर 2005 के पहले और बाद से बेटियों के हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्तियों में हिस्सा मिलेगा। अगर बेटी जिंदा नहीं है तो उसके बच्चे संपत्ति में हिस्सेदारी पाने के योग्य समझे जाएंगे। कोर्ट ने कहा, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बेटी जिंदा है या नहीं। यह हर हाल में लागू होगा।" ये संशोधन कितना कारगर होगा ये तो नहीं पता , पर हां इस मंच पर अगर इसकी चर्चा नहीं की गई तो शायद सही नहीं होगा। बेटी शादी के बाद भी बेटी ही रहती है ऐसा सुप्रीम कोर्ट का तर्क है। इतने सदियों बाद आज समाज ने माना है कि बेटी शादी के बाद भी बेटी ही होती है। इस कानून से कितनी बेटियों का भला होगा ये तो मुझे नहीं पता, पर हां मेरी नजरिए से कहूं तो भला कम नुकसान ज्यादा होगा। वैसे ही इतने केस सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, सेशन कोर्ट में  न्याय की प्रतीक्षा में लटके हुए हैं । अब इस कानून से लहर चल जाएगी केसों की। एक नजरिया आप सबके सामने रखना चाहूंगी, पता नहीं आपको पसंद आए ना आए पर विचार जरुर लिखिएगा अपने। एक बेटी को कभी भी पिता की सम्पत्ति का मोह नहीं होता, होगा कैसे उसे पराए घर की

कुछ सीख बेटे के लिए भी ताकि हर बेटी सुरक्षित रहे।

राधिका बेटे के होने पर बहुत खुश थी। प्रसव पीड़ा के वक़्त वो बस यही सोच रही थी -" भगवान बेटा ही देना , बेटी तो इस दुनिया में ; मां के गर्भ में भी सुरक्षित नहीं है। उसे प्रसव की पीड़ा से ज्यादा, बेटी के होने का डर सता रहा था। तभी डॉक्टर ने बोला -" आप लंबी सांसे लीजिए, आपका ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ रहा है, इस तरह तो हमे ऑपरेशन करना पड़ेगा । बच्चे को सांस लेने में तकलीफ हो रही है।" राधिका ने खुद को संभाला और जैसे तैसे डिलीवरी हो ही गई। राधिका ने पूछा -" डॉक्टर बेटा है या बेटी ।" डॉक्टर -" राधिका बेटा हो या बेटी , मां को तो 9 महीने दोनो को ही रखना पड़ता है गर्भ में, उतनी ही प्रसव पीड़ा भी सहनी पड़ती है; फिर एक मां के लिए बेटा - बेटी में क्या अंतर? " राधिका -" डॉक्टर !! मां के लिए तो सब बराबर है, पर ये दुनिया  बेटियों कि दुश्मन है। बेटियों को पढ़ाई लिखाई कराओ , कदम कदम पर बैठे भेड़ियों से बचाओ। वहां से बच गई तो फिर ससुराल अच्छा ना मिला तो जीवन भर का दुख !! मै बस इन बातों से डर रही हूं, बेटी से नहीं।" डॉक्टर -" राधिका!! ये तो परवरिश का खोट है, वरन

शिक्षा - माफिया पर कब बात होगी ?

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भू - माफिया, ड्रग - माफिया, पेट्रोल - माफिया, मूवी - माफिया पर तो बहुत बातें हो चुकी , अब शिक्षा - माफिया पर कब बात होगी ? अपने 10 साल के शिक्षण अनुभव में मैंने , सरकारी, प्राइवेट, एनजीओ, प्राइवेट क्लीनिक (स्पेशल एजुकेशन), प्राइवेट वोकेशनल सेंटर (फॉर चिल्ड्रेन विद स्पेशल नीड़) में काम किया। कुछ दिन पहले अपने कुछ अनुभव एक पोस्ट के जरिए सांझा किए थे। शिक्षा - माफिया की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि मेरे साथ काम करने वाले किसी भी साथी ने (जिन्होंने इन संस्थाओं में मेरे साथ काम किया है), पोस्ट पर लाइक या कॉमेंट करने की हिम्मत नहीं की, बल्कि मुझे ही समझाया -" इस वक़्त ये सब मत लिखो, कोई भी स्कूल दोबारा काम नहीं करेगा तुम्हारे साथ। ये प्राइवेट स्कूल के प्रिंसिपल, मैनेजर सब जानते है एक- दूसरे को। ये सब मिलकर ब्लैकलिस्ट कर देंगे। जिनके लिए लिख रही हो जब उनके पैरेंट्स को प्रॉब्लम नहीं की , उनके (चिल्ड्रेन विद स्पेशल नीड़ ) बच्चों की क्लास क्यू नही हो रही , क्यू कुछ स्कूल में डबल फीस लेकर स्पेशल नीड़ चिल्ड्रेन को एडमिशन मिलता है? तो तुम क्यों अपना कैरियर खराब कर रही हो? " अभी सबको ये बात बहु

वैसे बच्चे...

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 मेरी पहली नियुक्ति नगर निगम के स्कूल, नई दिल्ली में हुई। एक तो 20 साल की उम्र में नौकरी की शुरुआत ,फिर उस वक़्त बहुत जोश भी होता है कुछ नया करने का। सब कुछ ठीक था पर स्कूल की एक बच्ची ने मेरा ध्यान बहुत आकर्षित किया। उसकी आंखों में बाकी बच्चों की तरह मासूमियत तो थी पर अपनापन दूसरे बच्चों से ज्यादा था । वो हर कक्षा में जाती और टीचर्स के सामने कॉपी रखकर कहती मुझे पढ़ा दो। वो तभी 5 मिनट बाद फिर दूसरी कक्षा में जाती और यही कहती। मैंने एक सीनियर से पूछा- ये ऐसा क्यू करती है ? उन्होंने  बोला  -अरे ये वो है... मैंने पूछा- वो कौन? उन्होंने कहा - अरे ! जो वैसे बच्चे होते हैं, जिनमें दिमाग कम होता है । वो है। तब तो मुझे कुछ करने का मौका ना मिला। फिर जब वो पांचवीं कक्षा में हुई, तो संयोग से वो क्लास मुझे मिल गई। हमने मिलकर बहुत कुछ सीखा, उसने मुझे बहुत कुछ सिखाया। दुनिया का दोगलापन उसकी वजह से ही देख पाई मै। उसके बाद वो पांचवीं पास करके हाई स्कूल चली गई, और मुझे दे गई उस दरवाजे की चाबी जिस पर दुनिया के लोगों ने अपने अपने हिसाब से ताले लगाए हुए थे। अपनी सोच के ताले। किसी पर लिखा था -

दिव्य + अंग (दिव्यांग )नहीं, समाज + अंग (समाजांग) समझें

विकल + अंग (विकलांग) से दिव्य + अंग ( दिव्यांग) तो बना दिया पर किसी ने भी समाज + अंग ( समाज अंग) बनाने पर शायद ध्यान नहीं दिया। एक कहावत है -                    जिसके पांव ना फटी बवाई, वो क्या जाने पिर परायी। ये कहावत सटीक बैठती है आज के हालात पर। कोरोना वायरस की वजह से दोस्त , रिश्तेदार सब एक दूसरे से किनारा कर बैठे हैं। छींक भी आ जाए तो भीड़ की नजरें ऐसे घूरती है जैसे मौत को पास से गुजरते देखा हो किसी ने। सब तरफ गर्दन झुका के भी पीछे से इशारे करते लोग साफ दिखाई देते हैं। गली पड़ोस भी देखते ही दरवाजे ऐसे बंद कर लेते हैं जैसे कोई उधार मांगने आया हो। इसी सब के चलते आज आधे लोग अवसाद में है । तरह तरह के योगा,काढ़े,चिंतन,पूजा पाठ किए जा रहे हैं। ये स्थिति तो कुछ समय बाद ठीक हो जाएगी। फिर से दरवाजे  पर पड़ोसी के बच्चे खेलेंगे, पड़ोस की बूढ़ी चाची फौज से आए बेटे के खत को पढ़वाने आयेगी। रिश्तेदार भी त्योहार पर तोहफे का इंतजार करेंगे। पर उनका क्या जिनसे समाज से हमेशा के लिए  किनारा कर लिया?? हमेशा के लिए उनके लिए अपनी सोच के दरवाजे बंद कर लिए हैं। हां मै बात कर रही हूं उन्ही दिव्यांगो की जिन्ह